हरियाणा की खाप पंचायतों के आगे सियासी दल बौने
बिग सियासी चैलेंज : सरकार के समानांतर चलता है खाप पंचायतों का तंत्र
केवल वोट की चिंता
- चुनावों के समय सामाजिक-आर्थिक मुद्दे उठाने वाले सियासी दलों का मकसद केवल चुनाव जीतना होता है
- अपने चुनावी घोषणा पत्र में सियासी दल इन मुद्दों को हल करने का वादा करते हैं, लेकिन मुद्दे रहते हैं यथावत
- कोई भी सियासी पार्टी विस्तार से यह नहीं बताती है कि वह इन मुद्दों को आखिरकार कैसे हल करेगी
संरक्षण
ऑनर किलिंग, दलित उत्पीडऩ, महिला अधिकार हनन व असंतुलित लिंगानुपात को खाप पंचायतों का सरंक्षण
हरियाणा में खाप पंचायतों का तंत्र सरकार के समानांतर चलता है। कई मामलों में सरकार और सियासी दल खाप पंचायतों के आगे घुटने टेक देते हैं। ऑनर किलिंग, दलित उत्पीडऩ, महिला अधिकार और असंतुलित लिंगानुपात ऐसे अहम मसले हैं जिन्हें लेकर हमेशा अपना कानून चलाने वाली खाप पंचायतों के खिलाफ कोई सियासी पार्टी बेबाक नहीं है।
हर बार चुनावों में इन मसलों को मुद्दा बनाने वाली तमाम सियासी पार्टियां वोटों के फेर में खाप पंचायतों के आगे बौनी पड़ जाती हैं। सत्ता में आने वाली हर पार्टी इन्हें समाजसेवी संगठन कहकर अपने दायित्व से मुंह फेर लेती है।
गोवा के बाद देश में सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय वाले हरियाणा की स्थापना के 48 वर्ष पूरे होने के बाद भी वहां सामाजिक-आर्थिक उत्थान नहीं हो पाया है। कन्या भ्रूण हत्या, दलितों का उत्पीडऩ, सगोत्र विवाह पर सामाजिक बहिष्कार, महिलाओं के अधिकारों का हनन जैसी कुरीतियां वहां कायम हैं।
2011 की जनसंख्या के मुताबिक, हरियाणा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या सबसे कम है। यहां 1000 पुरुषों की तुलना में 879 महिलाएं ही हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर लिंगानुपात 1000:943 है। इस सामाजिक असंतुलन का ही नतीजा है कि यहां 2009 के लोकसभा व विधानसभा चुनावों में सियासी दलों से मतदाताओं की मांग बिजली, सड़क और पानी की नहीं थी। यहां मतदाताओं का नारा था - बहु लाओ, वोट पाओ।
हरियाणा के इस सामाजिक असंतुलन पर जींद की समाजसेवी बिमला सांगवान का कहना है कि नेपाल से भी दुल्हन खरीदने में गुरेज न करने वाले लोग अपने घरों में कन्या भ्रूण हत्या करने से बाज नहीं आ रहे हैं। बरसों से कायम सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर चली आ रही सियासी दलों की सियासत पर चिंता जताते हुए सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के प्रेसीडेंट पार्थ जे शाह का कहना है कि चुनावों के समय इन मुद्दों को उठाने वाले सियासी दलों का मकसद केवल चुनाव जीतना होता है।
अपने चुनावी घोषणा पत्र में वे इन मुद्दों को हल करने का वादा करते हैं, पर मुद्दे यथावत रहते हैं। घोषणा पत्र में कोई भी पार्टी यह साफ नहीं करती है कि वह उक्त मूलभूत सुविधाएं जुटाने के लिए क्या ठोस कदम उठाने जा रही है। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के रिसर्च स्कॉलर डा.आर के भारद्वाज का मानना है कि हरियाणा का अधिकतर हिस्सा आज भी सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है।
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