बिजनेस की ही सामाजिक जिम्मेदारी क्यों?

Publication: 
दैनिक भास्कर
Publication Date: 
Saturday, 13 February 2010

हाल ही में दिल्ली में एक दोपहर भोज के दौरान गुलाबी साड़ी पहने एक महिला ने मुझे घेर लिया। वह मुझे कारपोरेट की सामाजिक जिम्मेदारी पर धाराप्रवाह भाषण देने लगीं। मैंने अपने आप से पूछा कि आखिर क्यों कोई डॉक्टरों, वकीलों, पत्रकारों को सामाजिक जिम्मेदारी पर भाषण नहीं देता? बिजनेस के लोगों के खिलाफ ही यह आक्रोश क्यों? सही है कि भारत में आर्थिक सुधारों की सफलता के बाद पूंजीवाद के प्रति हमारा शत्रु भाव कुछ कम हुआ है। लोग यह तो मानते हैं कि बाजार व्यवस्था से समृद्धि आई है, लेकिन पूंजीवाद को नैतिक व्यवस्था वे अब भी नहीं मानते।

कारपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी को बिजनेस के लोगों के लिए मुनाफा कमाने के अपराध बोध से मुक्ति का रास्ता माना जाता है। इसीलिए कंपनियों में इसके लिए विशेष विभाग हैं, बिजनेस स्कूलों में विशेष कोर्स हैं और अखबारों में विशेष रिपोर्टर हैं। फिर भी मैं इसे लेकर असहज क्यों महसूस करता हूं? कहा जाता है कि कंपनियों को उस समाज को वापस कुछ देना चाहिए जिसकी वजह से वे सफल हुई हैं। लेकिन जब कंपनियां पहले ही इतना कुछ दे रही हैं तो फिर अतिरिक्त देने की यह अपेक्षा क्यों? क्या वे कई लोगों को रोजगार और उन्हें वेतन-भत्ते नहीं दे रही हैं? क्या वे उत्पाद और सेवाएं नहीं दे रही हैं जिनकी जरूरत है? क्या वे टैक्स अदा नहीं कर रही हैं?

मेरे दोस्त पार्थ शाह कहते हैं कि सामाजिक जिम्मेदारी का आंदोलन बाजार से वह काम करवाना चाह रहा है जो समाज या सरकार का काम है। प्रारंभ में जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा का दायित्व राज्य या सरकार का था। समाज स्वयंसेवी संस्थाओं, धार्मिक समुदायों या कल्याण संगठनों के माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य, जरूरतमंदों की मदद जैसे काम करता था। फिर सरकार ने बाजार और समाज के कामों को हड़पना शुरू किया। बाद में साम्यवाद के पतन के बाद सरकार को बाजार के कामों से हाथ खींचने पड़े। समाज के कामों पर अब भी उसका कब्जा है और उम्मीद करनी चाहिए कि वे भी जल्दी ही उसके शिकंजे से मुक्त हो जाएंगे।

नोबेल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रीडमैन ने अपने एक प्रसिद्ध लेख में कहा है कि ‘बिजनेस की सामाजिक जिम्मेदारी मुनाफा कमाना है।’ उन्होंने लिखा कि मुनाफा कमाने के लिए कंपनी हजारों नौकरियों का सृजन करती है, वह कर्मचारियों में हुनर का विकास करती है, वह करोड़ों रुपए का टैक्स अदा करती है। यह समाज की जबरदस्त सेवा है। लिहाजा कंपनी की सामाजिक जिम्मेदारी कानूनी तरीकों से मुनाफा कमाना, प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाना, कामकाज के सर्वोच्च मानदंडों को कायम रखना है।

मैं देखता हूं कि बिजनेस के कई लोग जो काम करते हैं, उसका महत्व नहीं समझते और इसलिए कथित सामाजिक जिम्मेदारी के पाखंडपूर्ण कार्यक्रमों से अपना अपराध बोध कम करने की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिए मैनेजरों को मुनाफा कमाने में गर्व महसूस करना चाहिए। दूसरे, उन्हें याद रखना चाहिए कि कंपनी की धन उनका नहीं, शेयरधारकों का है। सामाजिक जिम्मेदारी के भी वही काम उचित हैं जिनसे मुनाफा बढ़े।

निजी तौर पर परोपकार के काम उत्साह से करने चाहिए। इसके लिए अपना पैसा खर्च करना बेहतर है। रिलायंस अस्पताल बनवाए तो यह शेयरधारकों के पैसे की चोरी होगी, लेकिन मुकेश अंबानी यह करें तो प्रशंसनीय होगा। टाटा चैरिटी के काम अपने ट्र्स्टों के माध्यम से करते हैं। कारपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी का नामकरण निजी सामाजिक जिम्मेदारी कर देना चाहिए।